Saturday, September 22, 2012

बंद कमरों में नहीं आते हैं बदलाव


कुछ दिनों से एक बात समझ में नहीं आ रही, जब भी किसी बड़े होटल या रेस्तरां में जाता हूं तो किसी सरकारी प्रोग्राम को होते देखता हूं जिनका उस जगह में होना पचता नहीं। एक उदाहण देता हूं समझने के लिए, पिछले दिनों भैया के साथ होटल मौर्या लंच करने गया था। वहां ह्यसस्टेनेबल डेवलपमेंट इन फार्मह्ण पर एक कार्यक्रम चल रहा था। एसी हॉल में कुछ एक्सपर्ट प्रेजेंटेशन दे रहे थे, पावर प्वाइंट के जरिए टाई पहने अफसरों को बता रहे थे कि हम कैसे घर के बेकार चीजों का इस्तेमाल खेत में कर सकते हैं। भाषण सुनने वालों में ज्यादातर या तो मेरे उम्र के स्टूडेंट थे, या फिर टाई लगाए अफसर। किसी को भी कभी न खेत जाना है, न ही किसी किसान से मिलने का मौका मिलेगा, तो फिर ऐसे प्रोग्राम का क्या मतलब ?
सरकारी पैसे में किसी तरह कोई प्रोग्राम कराना था, फाइव स्टार होटल में लंच कराकर लुटा दिया। हद है। शायद हमारे देश की ये हालत इसी वजह से हुई है। हम अगर बात सही करते हैं तो गलत लोगों से करते हैं, या बात गलत सही  लोगों से। हर कोई यही चिल्लाता है कि हमारे देश के सारे नियम और फै सले बंद कमरे में लिए जाते हैं, जिन्हें वास्तविकता का कोई अंदाजा ही नहीं होता। जरूरत वैसे लोगों की है जो कि जमीनी स्तर पर आकर काम करें, परेशानियों को हल करें।
कारतिक करन

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